बचपन में होने वाले कैंसर के कुछ इलाज लंबे समय तक रहने वाली ज्ञान-संबंधी प्रक्रियाओं से जुड़ी परेशानियां उभरने का खतरा बढ़ाते हैं। इन परेशानियों को ज्ञान-संबंधी देरी से होने वाले प्रभाव के नाम से जाना जाता है। ऐसा हो सकता है कि इलाज के बाद महीनों या सालों बाद कहीं जाकर ये परेशानियां साफ़ तौर पर नज़र आएं और समय के साथ इनमें बदलाव भी आता जाए।
ब्रेन ट्यूमर या एक्यूट लिम्फोब्लास्टिक ल्यूकेमिया (एएलएल) का इलाज करवाने वाले बच्चों में यह परेशानी उभरने की संभावना ज़्यादा होती है और इसकी वजह इन कैंसर के इलाज के लिए इस्तेमाल किए जाने वाली थेरेपी होती हैं। हालांकि, दूसरे तरह के कैंसर के बचने वाले लोगों में भी ज्ञान-संबंधी परेशानियां देखी गई हैं।
ज्ञान-संबंधी क्षमता में कमी आने पर जीवन शैली से जुड़े रोज़मर्रा के छोटे-बड़े कामों को करने में परेशानी आ सकती है। ज्ञान-संबंधी देरी से होने वाले प्रभाव की परेशानी से जूझ रहे बच्चों में स्कूली पढ़ाई के दौरान परेशानी आने और पढ़ाई-लिखाई में कमज़ोर रहने की संभावना कहीं ज़्यादा होती है। उन्हें नौकरी करने, आत्म-निर्भर होकर जीवन जीने और सामाजिक संबंध बनाने में भी कहीं ज़्यादा परेशानी आ सकती है।
ज्ञान-संबंधी काम में आने वाली परेशानी से जुड़े जोखिमों को समझना, रोगी के परिवार वालों को योजना बनाने में मदद कर सकता है ताकि वे परेशानी का नियमित मूल्यांकन कर सकें। जो परेशानी पैदा होती हैं, यह उनसे निपटने के लिए योजना बनाने में मदद कर सकता है। यह रोगियों को कहीं बेहतर तरीके से सहयोग देने में मदद कर सकता है ताकि वे ज़िंदगी से जुड़े फ़ैसले आसानी से ले सकें।
बच्चों में ज्ञान-संबंधी परेशानियों के लक्षण
ज्ञान-संबंधी देरी से होने वाले प्रभाव का जोखिम पैदा करने वाली वजहों में शामिल हैं:
जोखिम बढ़ाने वाली दूसरी वजहों में इलाज के समय कम उम्र होना, इलाज की तीव्रता (खुराक और अवधि), आघात(लकवा), हाइड्रोसिफ़लस (दिमाग में पानी आ जाना), संक्रमण या सीज़र (दौरा) जैसी गंभीर बीमारियां शामिल हैं। जिन महिलाओं को क्रेनियल रेडिएशन इलाज दिया जाता है, उनमें पुरुषों की तुलना में ज्ञान-संबंधी देरी से होने वाले प्रभाव का ख़तरा कहीं ज़्यादा होता है। जीवित रहने वाले लोगों में गंभीर बीमारियां उभर सकती हैं जैसे दिल, फेफड़े या एंडोक्राइन संबंधी बीमारी। ऐसे लोगों में ज्ञान-संबंधी परेशानी होने का ज़्यादा जोखिम भी होता है।
ऐसा माना जाता है कि कैंसर के इलाज की वजह से ज्ञान-संबंधी क्षमता में कमी दरअसल मस्तिष्क के सफेद पदार्थ में आने वाले बदलाव के साथ शुरू होती है। सफेद पदार्थ या व्हाइट मैटर माइलिन से बना होता है, जो तंत्रिका तंतुओं (नर्व फ़ाइबर) को एक तरह का इंसुलेशन (एक पदार्थ की मोटी परत) देता है और संकेतों को न्यूरॉन्स के बीच जल्दी से पहुंचने देता है। युवा होने के दौरान माइलिनेशन और सफेद पदार्थ का विकास जारी रहता है।
समय बीतने के साथ, मस्तिष्क के धूसर पदार्थ या ग्रे मैटर में भी बदलाव होने लगता है। धूसर पदार्थ न्यूरॉन्स या तंत्रिका कोशिकाओं से बना होता है, जिन पर मस्तिष्क में सूचना या जानकारी संसाधित करने और उनका संचार करने की ज़िम्मेदार होती है।
मस्तिष्क में सफेद पदार्थ और धूसर पदार्थ का बनना, कोई काम ध्यान से कर पाने या किसी काम में ध्यान लगा पाने, तर्क का इस्तेमाल करने और परेशानी का हल करने जैसे ज्ञान-संबंधी काम करने की क्षमता में बढ़ोत्तरी करता है।
कुछ कीमोथेरेपी इलाज और क्रेनियल रेडिएशन मस्तिष्क के फ्रंटल लोब में सफेद पदार्थ बनने की प्रक्रिया में अड़चन डाल सकते हैं। इससे ज्ञान-संबंधी क्षमता में कमी आ सकती है जो समय बीतने के साथ साफ़ तौर पर नज़र आने लगती है। मस्तिष्क के कुछ क्षेत्रों जैसे कि हिप्पोकैम्पस, याददाश्त बनाने में शामिल संरचना के ग्रे पदार्थ पर भी इलाज असर डाल सकते हैं जो क्रेनियल रेडिएशन को लेकर ख़ास तौर पर संवेदनशील होते हैं।
इलाज की वजह से कोशिकाओं और रक्त वाहिकाओं में सूजन आने या उन्हें नुकसान पहुंचने से भी मस्तिष्क को नुकसान पहुंच सकता है। मस्तिष्क में रक्त वाहिकाओं को पहुंचने वाले नुकसान से कई तरह के प्रभाव पड़ सकते हैं। इन प्रभावों में रक्तस्राव और लकवा (स्ट्रोक) शामिल हैं। यह एक बड़ा स्ट्रोक हो सकता है जिससे अचानक बड़े बदलाव आते हैं और ये बदलाव साफ़ तौर पर देखे जा सकते हैं या यह एक छोटा स्ट्रोक हो सकता है जिसमें बदलाव साफ़ तौर पर नज़र नहीं आते हैं लेकिन समय के साथ बढ़ते चले जाते हैं। ये प्रभाव इलाज के कई महीनों से लेकर सालों बाद नज़र आ सकते हैं।
इलाज से जुड़ी दूसरी वजहें भी ज्ञान-संबंधी कामों पर असर डाल सकती हैं जो सीधे तौर पर नज़र न आएं। इनमें सुनने और/ या देखने में परेशानी, स्कूल न जाना और भावनात्मक या सामाजिक मुद्दे शामिल हैं।
सीखने, व्यवहार और मस्तिष्क के विकास पर फ़ोकस करने वाले मेडिकल क्षेत्र को न्यूरोसाइकोलॉजी (तंत्रिका मनोविज्ञान) कहा जाता है। न्यूरोसाइकोलॉजिकल मूल्यांकन काम के इन अलग-अलग पहलुओं को मापता है:
ग्लोबल इंटेलिजेंस और शैक्षणिक उपलब्धि भी ज्ञान-संबंधी मूल्यांकन में अहम होती हैं। ज्ञान-संबंधी प्रक्रियाओं, भावनाओं, सामाजिक कौशल और व्यवहार में बच्चा अच्छा है या खराब, इसका मूल्यांकन करने के लिए माता-पिता और शिक्षकों की टिप्पणियों का भी इस्तेमाल किया जाता है।
बचपन में होने वाले कैंसर से जुड़ी ज्ञान-संबंधी परेशानियों और इलाज का नतीजा यह हो सकता है:
बचपन में होने वाले कैंसर से बचने वाले ज़्यादातर लोगों में ज्ञान-संबंधी परेशानी कौशल की कमी होने की वजह से नहीं होती हैं। ज़्यादातर परेशानियां अक्सर सीखने की दर धीमी होने की वजह से होती हैं। बच्चे अभी भी नए कौशल सीखते हैं और विकसित करते हैं लेकिन उतनी जल्दी नहीं जितना कि उनके साथ पढ़ने वाले बच्चे या दोस्त करते हैं।
बचपन में होने वाले कैंसर से बचने वाले लोगों में ज्ञान-संबंधी देरी से होने वाले प्रभाव आम तौर पर एग्ज़ीक्यूटिव फ़ंक्शन (लक्ष्य पाने के लिए अपना और अपने संसाधनों का प्रबंधन करना) में परेशानी से जुड़े होते हैं। इसमें वर्किंग मेमोरी (काम में ली जा रही जानकारी एकत्रित करने वाली स्मृति), लचीली सोच और आत्म-नियंत्रण शामिल हैं। ये कौशल किसी व्यक्ति को योजना बनाने, व्यवस्था करने और परेशानी हल करने की क्षमता देते हैं। अक्सर ध्यान, जानकारी संसाधित करने की रफ़्तार और काम को व्यवस्थित करने और पूरा करने की क्षमता में कमी आ जाती है।
पढ़ाई में आने वाले बड़े बदलाव के दौरान ये परेशानियां कहीं ज़्यादा साफ़ तौर पर नज़र आ सकती हैं। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, माता-पिता और शिक्षक अपेक्षा करते हैं कि बच्चे संगठन के कार्यों और प्रायोगिक शिक्षण में आत्मनिर्भर बनें। ज्ञान-संबंधी क्षमता में कमी वाले बच्चों के लिए, माता-पिता की बढ़ती उम्मीद पर खरे उतर पाना मुश्किल हो जाता है। वे कौशल और क्षमता से जुड़ी उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाते हैं और उनके साथी उनके मुक़ाबले कहीं ज़्यादा तेज़ी से आगे बढ़ते हैं।
ज्ञान-संबंधी क्षमता में कमी अक्सर पढ़ाई-लिखाई और करियर पर असर डालती है। ये परेशानियां सामाजिक और भावनात्मक व्यवहार के साथ-साथ जीवन शैली पर बुरा असर डाल सकती हैं।
शुरुआती बचाव और साथ-साथ निगरानी करने से ज्ञान-संबंधी देरी से होने वाले प्रभाव का प्रबंधन करने में मदद मिल सकती है।
कैंसर के इलाज अक्सर मस्तिष्क की संरचनाओं को नुकसान पहुंचा सकते हैं। ये नुकसान हमेशा के लिए असर डाल सकते हैं या कुछ दिनों के लिए। साथ ही, ये प्रभाव कई तरह के हो सकते हैं यानी हल्के से लेकर गंभीर तक। रोगी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सही बचाव और संसाधन उपलब्ध करवाने हेतु व्यक्तिगत सीमाओं को समझना ज़रूरी है। ज़िंदगी जीने के सेहतमंद तौर-तरीके को अपनाने से ज्ञान-संबंधी सेहत को बेहतर बनाने और उसे बनाए रखने में मदद मिल सकती है।
खाने-पीने के लिए सेहतमंद चीज़ें चुनना, तनाव को कम करना और मोटापे, मधुमेह और हृदय रोग जैसी बीमारियों का प्रबंधन करना सेहतमंद दिमाग और ज्ञान-संबंधी प्रक्रिया के लिए ज़रूरी है। कैंसर इलाज के बाद देरी से होने प्रभाव के तौर पर हृदय रोग यानी दिल की बीमारी और फेफड़ों के रोग उभर सकते हैं और ज्ञान-संबंधी प्रक्रिया में गड़बड़ी पैदा करने का काम कर सकते हैं। इसलिए, किसी भी तरह के कैंसर से बचने वाले लोगों के लिए दिमाग की सेहत के साथ – ज़िंदगी भर सेहत – का ख्याल रखने की सोच अपनाना बेहद ज़रूरी है।
बीमारी से उबरने के दौरान रोगी और उसके परिवार के सदस्य ज्ञान-संबंधी सेहत को बेहतर बनाने के लिए कुछ कदम उठा सकते हैं।
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समीक्षा की गई: जून 2018